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Khaki Mein Insan (खाकी में इंसान)

Unknown Author
4.9/5 (23729 ratings)
Description:इंसानियत की ख़ुश्बू से लबरेज़ है .... “ख़ाकी में इंसान”बहुत पहले हुक्का बिजनौरी की कुछ पंक्तियाँ सुनी थी , सुनकर हंसी भी आयी और दुःख भी हुआ कि “हुक्का” बिजनौरी साहब को आख़िर ऐसा क्यूँ लिखना पड़ा :--पुलिस कर्मचारी और ईमानदारी ?आप भी क्या बात करते हैं श्रीमान ...सरदारों के मोहल्ले में नाई की दूकान ..…आज भी समाज का नज़रिया ख़ाकी के प्रति ये ही है। चाहें हमारी फ़िल्में हों या फिर हमारा मीडिया इन्होंने पुलिस के चेहरे पे एक आध चिपके भ्रष्ट चेचक के दाग तो समाज को दिखाए मगर ख़ाकी के मर्म , ख़ाकी की टीस ,ख़ाकी के भीतर के इंसान को कभी आवाम से मुख़ातिब नहीं करवाया।ऐसा नहीं है कि पुलिस अपने काम को सही तरीक़े से अंजाम नहीं दे रही , ऐसा भी नहीं है कि ख़ाकी लबादे के पीछे सिर्फ़ संवेदनहीन लोग हैं और ऐसा भी नहीं है कि ख़ाकी में इंसान नहीं होते मगर आम आदमी को किसी ने सिक्के का दूसरा पहलू कभी दिखाया ही नहीं।भारतीय पुलिस सेवा के 89 बैच के अधिकारी अशोक कुमार ने अपने दो दशक ख़ाकी में पूरे करने के बाद इस इलाके में एक बेहतरीन कोशिश अपनी किताब “ख़ाकी में इंसान” के ज़रिये की। उन्होंने अपनी इस किताब में छोटे –छोटे अफ़सानों के माध्यम से पुलिस की तस्वीर के वो रंग दिखाए जिसे समाज अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित चश्में से कभी देखता ही नहीं था।राजकमल पेपरबैक्स से 2011 में छपी “ख़ाकी में इंसान “ इतनी मक़बूल हुई कि 2012 में इसका दूसरा संस्करण भी आ गया।ख़ाकी में बीस साल से भी ज़ियादा अपने तजुर्बे को किस्सों की शक्ल में ढालकर किताब के पन्नों पर जिस तरह अशोक साहब ने उकेरा है उससे लगता है कि एक बेहतरीन पुलिस अफ़सर के साथ - साथ वे एक मंझे हुए क़लमकार भी हैं।ख़ाकी पहनने के बाद ख़ाकी के अन्दर तक के तमाम पेचो-ख़म ,काम करने के तौर-तरीक़े , काम नहीं करने के सबब , इंसाफ़ की गुहार करते मज़लूम की दिल से इमदाद और कभी ख़ाकी का वो बर्ताव जो आज उसकी शिनाख्त हो गया है ये तमाम चीज़ें लेखक ने बड़े सलीक़े और सच्चाई के साथ अपने किस्सों में चित्रित की हैं।हरियाणा के एक छोटे से गाँव से तअल्लुक़ रखने वाले अशोक कुमार ने अपनी मेहनत और लगन से हिन्दुस्तान के जाने – माने संस्थान आई.आई.टी ,दिल्ली से बी.टेक और एम्.टेक किया। साल 1989 में इनका चयन भारतीय पुलिस सेवा में हुआ फिलहाल लेखक सीमा सुरक्षा बल ,दिल्ली में महानिरीक्षक के पद पर हैं।पुलिस सेवा में अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अशोक साहब ने पंद्रह –सोलह किस्सों में बांटा है और हर किस्से में उन्होंने अपने महकमें के अच्छे कामों के साथ – साथ बड़ी बेबाकी से उसकी ख़ामियों को भी उजागर किया है।“लीक से हटकर इंसाफ़ की एक डगर”..इस उन्वान से लिखे शाहजहांपुर के 1997 के एक संस्मरण में वे दबंगों के ज़ुल्मों-सितम से त्रस्त एक महिला और उसके परिवार को इंसाफ़ दिलाने में पुलिस के इंसानियत की सतह पर किये प्रयासों को वर्णित करते है। प्राय देखने में आता है कि पुलिस अपनी ख़ामियों पे लीपा-पोती करती है मगर इस किस्से में अनोखी बात ये नज़र आती है कि लेखक पूर्व में की हुई पुलिस की तमाम ग़लतियों को सरेआम स्वीकार कर पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए एक नई राह अख्तियार करते है।चक्रव्यूह शीर्षक वाले अपने किस्से में लेखक पाठकों को पुलिस अकादमी हैदराबाद से तरबीयत (ट्रेनिंग ) मुकम्मल करने के बाद अपनी इलाहाबाद की पहली पोस्टिं के संस्मरण से रु-ब-रु करवाते हैं। प्रारम्भ में वे इलाहाबाद के धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक पृष्ठ भूमि का जिस तरह वर्णन करते हैं तो लगता है कि साहित्य से हुज़ूर का तआर्रुफ़ बहुत पुराना है। छोटे कस्बों के पुलिस थानों में कैसा निज़ाम चलता है इसका चित्रण इस अफ़साने में अशोक साहब बड़ी साफ़गोई से करते हैं। दलालों , दबंगों ,बदमाशों और कुछ पुलिस वालों के जटिल चक्रव्यूह को अगर भेदना है तो पुलिस में इंसानियत का जज़्बा और जनता के साथ बेहतर समन्वय होना बेहद ज़रूरी है। फूलपुर थाने में थानाध्यक्ष की ट्रेनिंग के दौरान अपने अनुभव को इस किस्से में लेखक ने बड़ी ईमानदारी से बयान किया है।अपनी हरिद्वार पोस्टिंग के दौरान अशोक साहब 1996 में हुए रुड़की के एक बहुचर्चित केस में पीड़िता को इंसाफ़ दिलाने में इसलिए क़ामयाब होते है कि पूरी तफ़्तीश के वक़्त अपनी टीम में वे इंसानियत का जज़्बा कम नहीं होने देते। ”पंच परमेश्वर या “...उन्वान से उनका ये संस्मरण कई जगह रौंगटे खड़े कर देता है। आख़िर में मज़लूम को इंसाफ़ मिलता है , एक औरत परज़ुल्म ढाने वाले समाज के ठेकेदार सलाखों के पीछे भेज दिए जाते हैं। एक इंसान दोस्त रहनुमा की अगुवाई में रुड़की पुलिस के शानदार काम पर ख़ाकी को सलाम करने का दिल करता है।समाज को पुलिस की क़दम क़दम पर ज़रूरत पड़ती है इसी तरह पुलिस भी बिना समाज की मदद के अपने फ़र्ज़ को अंजाम नहीं दे सकती। इन दिनों ज़मीनों की बढ़ती हुई क़ीमतों की वजह से ज़मीन से संम्बंधित अपराधों की तादाद में इज़ाफा हुआ है। ज़मीन के कब्ज़े से मुतअलिक जब कोई केस पुलिस के पास आता है तो वो या तो कुछ ले दे के उसे रफ़ा-दफ़ा करने की फिराक़ में रहती है या फिर इसे दीवानी का मुआमला बता कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। भू-माफ़ियाओं और कुछ पुलिस वालों के इस तंत्र का पूरा लेखा जोखा अपने किस्से “भू-माफ़िया” में अशोक साहब ने बड़ी सच्चाई से लिखा है। केन्द्रीय सुरक्षा बल का एक सेवानिवृत इंस्पेक्टर अपने रिटायर्मेंट के पूरे पैसे से एक प्लाट खरीदता है और वो भू-माफ़ियाओं की जालसाज़ी का शिकार हो जाता है। पीड़ित की गुहार थाने में नहीं सुनी जाती और हताश हो वो आख़िरी उम्मीद के साथ लेखक के पास पहुंचता है। लेखक जानते हैं कि मुआमला उतना आसान नहीं है ,क़ानूनी पेचीदगियां है , भू –माफ़ियाओं के बड़े बड़े रसूक ...We have made it easy for you to find a PDF Ebooks without any digging. And by having access to our ebooks online or by storing it on your computer, you have convenient answers with Khaki Mein Insan (खाकी में इंसान). To get started finding Khaki Mein Insan (खाकी में इंसान), you are right to find our website which has a comprehensive collection of manuals listed.
Our library is the biggest of these that have literally hundreds of thousands of different products represented.
Pages
167
Format
PDF, EPUB & Kindle Edition
Publisher
Rajkamal Prakashan
Release
2011
ISBN
8126720239

Khaki Mein Insan (खाकी में इंसान)

Unknown Author
4.4/5 (1290744 ratings)
Description: इंसानियत की ख़ुश्बू से लबरेज़ है .... “ख़ाकी में इंसान”बहुत पहले हुक्का बिजनौरी की कुछ पंक्तियाँ सुनी थी , सुनकर हंसी भी आयी और दुःख भी हुआ कि “हुक्का” बिजनौरी साहब को आख़िर ऐसा क्यूँ लिखना पड़ा :--पुलिस कर्मचारी और ईमानदारी ?आप भी क्या बात करते हैं श्रीमान ...सरदारों के मोहल्ले में नाई की दूकान ..…आज भी समाज का नज़रिया ख़ाकी के प्रति ये ही है। चाहें हमारी फ़िल्में हों या फिर हमारा मीडिया इन्होंने पुलिस के चेहरे पे एक आध चिपके भ्रष्ट चेचक के दाग तो समाज को दिखाए मगर ख़ाकी के मर्म , ख़ाकी की टीस ,ख़ाकी के भीतर के इंसान को कभी आवाम से मुख़ातिब नहीं करवाया।ऐसा नहीं है कि पुलिस अपने काम को सही तरीक़े से अंजाम नहीं दे रही , ऐसा भी नहीं है कि ख़ाकी लबादे के पीछे सिर्फ़ संवेदनहीन लोग हैं और ऐसा भी नहीं है कि ख़ाकी में इंसान नहीं होते मगर आम आदमी को किसी ने सिक्के का दूसरा पहलू कभी दिखाया ही नहीं।भारतीय पुलिस सेवा के 89 बैच के अधिकारी अशोक कुमार ने अपने दो दशक ख़ाकी में पूरे करने के बाद इस इलाके में एक बेहतरीन कोशिश अपनी किताब “ख़ाकी में इंसान” के ज़रिये की। उन्होंने अपनी इस किताब में छोटे –छोटे अफ़सानों के माध्यम से पुलिस की तस्वीर के वो रंग दिखाए जिसे समाज अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित चश्में से कभी देखता ही नहीं था।राजकमल पेपरबैक्स से 2011 में छपी “ख़ाकी में इंसान “ इतनी मक़बूल हुई कि 2012 में इसका दूसरा संस्करण भी आ गया।ख़ाकी में बीस साल से भी ज़ियादा अपने तजुर्बे को किस्सों की शक्ल में ढालकर किताब के पन्नों पर जिस तरह अशोक साहब ने उकेरा है उससे लगता है कि एक बेहतरीन पुलिस अफ़सर के साथ - साथ वे एक मंझे हुए क़लमकार भी हैं।ख़ाकी पहनने के बाद ख़ाकी के अन्दर तक के तमाम पेचो-ख़म ,काम करने के तौर-तरीक़े , काम नहीं करने के सबब , इंसाफ़ की गुहार करते मज़लूम की दिल से इमदाद और कभी ख़ाकी का वो बर्ताव जो आज उसकी शिनाख्त हो गया है ये तमाम चीज़ें लेखक ने बड़े सलीक़े और सच्चाई के साथ अपने किस्सों में चित्रित की हैं।हरियाणा के एक छोटे से गाँव से तअल्लुक़ रखने वाले अशोक कुमार ने अपनी मेहनत और लगन से हिन्दुस्तान के जाने – माने संस्थान आई.आई.टी ,दिल्ली से बी.टेक और एम्.टेक किया। साल 1989 में इनका चयन भारतीय पुलिस सेवा में हुआ फिलहाल लेखक सीमा सुरक्षा बल ,दिल्ली में महानिरीक्षक के पद पर हैं।पुलिस सेवा में अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अशोक साहब ने पंद्रह –सोलह किस्सों में बांटा है और हर किस्से में उन्होंने अपने महकमें के अच्छे कामों के साथ – साथ बड़ी बेबाकी से उसकी ख़ामियों को भी उजागर किया है।“लीक से हटकर इंसाफ़ की एक डगर”..इस उन्वान से लिखे शाहजहांपुर के 1997 के एक संस्मरण में वे दबंगों के ज़ुल्मों-सितम से त्रस्त एक महिला और उसके परिवार को इंसाफ़ दिलाने में पुलिस के इंसानियत की सतह पर किये प्रयासों को वर्णित करते है। प्राय देखने में आता है कि पुलिस अपनी ख़ामियों पे लीपा-पोती करती है मगर इस किस्से में अनोखी बात ये नज़र आती है कि लेखक पूर्व में की हुई पुलिस की तमाम ग़लतियों को सरेआम स्वीकार कर पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए एक नई राह अख्तियार करते है।चक्रव्यूह शीर्षक वाले अपने किस्से में लेखक पाठकों को पुलिस अकादमी हैदराबाद से तरबीयत (ट्रेनिंग ) मुकम्मल करने के बाद अपनी इलाहाबाद की पहली पोस्टिं के संस्मरण से रु-ब-रु करवाते हैं। प्रारम्भ में वे इलाहाबाद के धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक पृष्ठ भूमि का जिस तरह वर्णन करते हैं तो लगता है कि साहित्य से हुज़ूर का तआर्रुफ़ बहुत पुराना है। छोटे कस्बों के पुलिस थानों में कैसा निज़ाम चलता है इसका चित्रण इस अफ़साने में अशोक साहब बड़ी साफ़गोई से करते हैं। दलालों , दबंगों ,बदमाशों और कुछ पुलिस वालों के जटिल चक्रव्यूह को अगर भेदना है तो पुलिस में इंसानियत का जज़्बा और जनता के साथ बेहतर समन्वय होना बेहद ज़रूरी है। फूलपुर थाने में थानाध्यक्ष की ट्रेनिंग के दौरान अपने अनुभव को इस किस्से में लेखक ने बड़ी ईमानदारी से बयान किया है।अपनी हरिद्वार पोस्टिंग के दौरान अशोक साहब 1996 में हुए रुड़की के एक बहुचर्चित केस में पीड़िता को इंसाफ़ दिलाने में इसलिए क़ामयाब होते है कि पूरी तफ़्तीश के वक़्त अपनी टीम में वे इंसानियत का जज़्बा कम नहीं होने देते। ”पंच परमेश्वर या “...उन्वान से उनका ये संस्मरण कई जगह रौंगटे खड़े कर देता है। आख़िर में मज़लूम को इंसाफ़ मिलता है , एक औरत परज़ुल्म ढाने वाले समाज के ठेकेदार सलाखों के पीछे भेज दिए जाते हैं। एक इंसान दोस्त रहनुमा की अगुवाई में रुड़की पुलिस के शानदार काम पर ख़ाकी को सलाम करने का दिल करता है।समाज को पुलिस की क़दम क़दम पर ज़रूरत पड़ती है इसी तरह पुलिस भी बिना समाज की मदद के अपने फ़र्ज़ को अंजाम नहीं दे सकती। इन दिनों ज़मीनों की बढ़ती हुई क़ीमतों की वजह से ज़मीन से संम्बंधित अपराधों की तादाद में इज़ाफा हुआ है। ज़मीन के कब्ज़े से मुतअलिक जब कोई केस पुलिस के पास आता है तो वो या तो कुछ ले दे के उसे रफ़ा-दफ़ा करने की फिराक़ में रहती है या फिर इसे दीवानी का मुआमला बता कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। भू-माफ़ियाओं और कुछ पुलिस वालों के इस तंत्र का पूरा लेखा जोखा अपने किस्से “भू-माफ़िया” में अशोक साहब ने बड़ी सच्चाई से लिखा है। केन्द्रीय सुरक्षा बल का एक सेवानिवृत इंस्पेक्टर अपने रिटायर्मेंट के पूरे पैसे से एक प्लाट खरीदता है और वो भू-माफ़ियाओं की जालसाज़ी का शिकार हो जाता है। पीड़ित की गुहार थाने में नहीं सुनी जाती और हताश हो वो आख़िरी उम्मीद के साथ लेखक के पास पहुंचता है। लेखक जानते हैं कि मुआमला उतना आसान नहीं है ,क़ानूनी पेचीदगियां है , भू –माफ़ियाओं के बड़े बड़े रसूक ...We have made it easy for you to find a PDF Ebooks without any digging. 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Pages
167
Format
PDF, EPUB & Kindle Edition
Publisher
Rajkamal Prakashan
Release
2011
ISBN
8126720239
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